जैन धर्म

जैन धर्म – इतिहास, सिद्धांत और महत्व
प्रस्तावना
जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है, जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे सिद्धांतों पर आधारित है। इसका उद्भव वैदिक काल के उत्तरार्ध में हुआ, जब समाज में धार्मिक अनुष्ठानों की जटिलता और कर्मकांडों का बोझ बढ़ रहा था। जैन धर्म के संस्थापक के रूप में भगवान ऋषभदेव का नाम लिया जाता है, लेकिन इसके 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को इसका वास्तविक प्रवर्तक माना जाता है।
जैन धर्म की उत्पत्ति
जैन परंपरा के अनुसार, यह धर्म अनादि काल से अस्तित्व में है। समय-समय पर तीर्थंकरों ने इसका पुनरुद्धार किया। 24 तीर्थंकरों में प्रथम ऋषभदेव और अंतिम महावीर स्वामी थे। महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली गणराज्य के कुंडग्राम में हुआ। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर कठोर तपस्या की और 12 वर्षों के बाद केवलज्ञान (कैवल्य) प्राप्त किया।
महावीर स्वामी का जीवन
- जन्म – 540 ईसा पूर्व, कुंडग्राम (वैशाली)
- पिता – सिद्धार्थ
- माता – त्रिशला
- गृहत्याग – 30 वर्ष की आयु में
- केवलज्ञान – 42 वर्ष की आयु में, ऋजुपालिका नदी के तट पर
- निर्वाण – 468 ईसा पूर्व, पावापुरी (बिहार)
जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत
जैन धर्म के पाँच मुख्य व्रत (महाव्रत) हैं:
- अहिंसा – किसी भी जीव को मन, वचन और कर्म से कष्ट न देना।
- सत्य – सत्य बोलना और असत्य से बचना।
- अस्तेय – चोरी न करना।
- ब्रह्मचर्य – इंद्रियों पर नियंत्रण।
- अपरिग्रह – भौतिक वस्तुओं का संचय न करना।
त्रिरत्न (तीन रत्न)
- सम्यक दर्शन – सत्य में विश्वास।
- सम्यक ज्ञान – सही ज्ञान।
- सम्यक चरित्र – सही आचरण।
जैन धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय
- दिगंबर – ये नग्न रहने और कठोर तपस्या करने में विश्वास रखते हैं।
- श्वेतांबर – ये सफेद वस्त्र पहनते हैं और अपेक्षाकृत सरल जीवन जीते हैं।
धार्मिक ग्रंथ
जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथ ‘आगम’ कहलाते हैं, जो प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं। दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के ग्रंथ अलग-अलग हैं।
पूजा-पद्धति और तीर्थ
- जैन धर्म में मूर्तिपूजा के साथ-साथ ध्यान और साधना का भी महत्व है।
- प्रमुख तीर्थस्थल – पावापुरी, श्री शत्रुंजय (पालिताना), श्री सम्मेद शिखरजी, गिरनार पर्वत।
जैन धर्म में अहिंसा का महत्व
अहिंसा जैन धर्म की मूल आत्मा है। यह न केवल मनुष्य पर बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगों और सभी जीवों पर लागू होती है।
जैन धर्म का समाज पर प्रभाव
- अहिंसा और शाकाहार की परंपरा को बढ़ावा।
- कला और वास्तुकला में योगदान – जैन मंदिरों की भव्यता प्रसिद्ध है।
- व्यापार और अर्थव्यवस्था में ईमानदारी और नैतिकता।
पतन के कारण
- संघटन की कमी।
- संप्रदायवाद और आंतरिक मतभेद।
- बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म का प्रभाव।
निष्कर्ष
जैन धर्म मानवता को सत्य, अहिंसा और संयम का संदेश देता है। इसके सिद्धांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने प्राचीन काल में थे। यह धर्म न केवल आध्यात्मिक विकास का मार्ग दिखाता है बल्कि समाज में नैतिक मूल्यों को भी सुदृढ़ करता है।